Ghazal

Published by Dr. Amit Singh

August 13, 2020

हो कर गई मुहब्बत बे-ज़ार मेरे दर से
मारे शरम के हम भी निकले न अपने घर से

दिल बुझ गया सुबह से उन के बग़ैर मेरा
घर में भी हो गई है इक शाम अब सहर से

हर दर्द के सफ़र में दिलबर इलाज-ए-ग़म है
कटता नहीं हमारा नाला-ए-दिल ज़हर से

क्या दैर क्या हरम क्या दर शैख़ बरहमन का
जाते नहीं कहीं हम अब यार के शहर से

कुछ यूँ गुज़र रही है इस दौर में मुहब्बत
अब बह रहा है इस में ख़ूँ आप चश्म-ए-तर से

दीद-ए-सनम की ख़ातिर भूला हूँ दर ख़ुदा का
मैं हो गया हूँ काफ़िर दुनिया में इस ख़बर से

इक बार तुम मिले थे इक भीड़ में कहीं पर
तस्वीर अब तुम्हारी हटती नही नज़र से

ख़्वाब-ए-फ़िराक़-ए-दिलबर मंज़ूर अब नहीं है
कह दो निगाह-ए-दिन से और रात के जिगर से

पैहम यहाँ चले तो हासिल हुआ ठिकाना
मिलती नहीं है मंज़िल आसान से सफ़र से

यायावरी हमारी कर दे न दूर उन को
कूचा-ए-यार घर है इस बात की फ़िकर से

क्या बात थी कि रौशन उस का मकाँ नहीं था
सोया नहीं मुसलसल मैं याँ कई पहर से

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