इंसान की नहीं,
यहाँ,
हैसियत की क़दर है
लौट चल गाँव
ये तो
मशीनों का शहर है
इंसान की नहीं,
यहाँ,
हैसियत की क़दर है
लौट चल गाँव
ये तो
मशीनों का शहर है
मुझे मेरी उङान ढूँढने दो।
खोई हुई पहचान ढूँढने दो।
महाभारत का युद्ध हो चुका
द्वारका नगरी बस चुकी है
वो तस्वीर देखी है?
जिसमे किसी समंदर किनारे…
शहरी जीवन की संवेदनहीनता और यांत्रिक अस्तित्व का यथार्थ चित्रण
बहुत गहरा कहा प्रेम जी