क्यूँ धीरे धीरे मुझे दिल पे कम यकीं हो चला है
क्यूँ रफ़्ता रफ़्ता जो महमान था मकीं हो चला है
न आरज़ू, न तमन्ना, न दिल में कोई भी हसरत
यूँ मुतमइन हो के दिल तेरे और करीं हो चला है
जुनून इश्क़ का इस तरह से शदीद हुआ अब
कि बद-दुआ’ भी ज़ुबा से यूँ आफ़रीँ हो चला है
तू ख़ुद ही अपने गरेबाँ में झाँकने लगा वाइज़
न बस ख़याल, अमल से भी तू ज़हीं हो चला है
गए क़रीब यूँ जब दर्द-ओ-रंज-ओ-ऐब के ‘मयकश’
वो अक्स आईने में और भी हसीं हो चला है
जंगल का फूल
पौधे और झाड़ियां तो बगिया की शान हैं,
पर फूलों में ही रहती, बगिया की जान है।
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