अगर मैं तुम्हें पेंट कर सकता तो…?
रंगों के इस जमघट में…
कौन सा रंग हो तुम???
नीला… आसमान सा कुछ..?
गुलाबी तो कतई नहीं..
या हरा.. गहरा घने पेड़ जैसा कुछ।
पीला तो नहीं हो..
सफेद!!!.. नहीं, नीरस सफेद नहीं.. बादलों सा भरा हुआ सफेद।
कौन सा रंग हो तुम?
तुम्हें बनाते हुए…अक़्सर मैं,
बीच में ही कहीं छूट जाता हूँ।
उन रंगों में… उन ब्रश के चलाने में..
पकड़ा-सा जाता हूँ मैं…
पहाड़ों और नदियों के बीच, खाली पड़ी जगह में कहीं।
रंगों में लिपा-पुता जब भी मैं तुमसे मिलता हूँ…
तुम पूछती – यह क्या मैं हूँ?
मैं कह देता… ’अभी यह पूरा बना नहीं है…।’
मैं कहना चाहता हूँ कि…
तुम बन चुकी हो…
यह तुम ही हो..
मैं तुम्हारा देर तक ’अकेले खेलना’ रंगना चाहता हूँ।
नहीं तुम्हारा अभी का खेलना नहीं..
तुम्हारे बचपन का खेल..।
पर..
किसी रंग में तुम अकेले मिलती हो..
तो कोई रंग महज़ तुम्हारे साथ खेलता है।
तुम बन चुकी हो…
पर वह रंग मैं अभी तक बना नहीं पाया जो…
अकेले खेल सकें…।
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