मैं अक्सर
ख़ुद को,
टुकड़ों में रख कर भूल जाती हूँ,
मैं माँ हूँ,
बेटी भी हूँ
पत्नी और बहन में बँटी भी हूँ,
मैं प्रेमिका हूँ,
मैं ख़ुद प्यार हूँ
बस शब्दों में रहती हूँ,
मैं ब्रह्म सी निराकार हूँ……
मैं अक्सर
ख़ुद को,
टुकड़ों में रख कर भूल जाती हूँ,
मैं माँ हूँ,
बेटी भी हूँ
पत्नी और बहन में बँटी भी हूँ,
मैं प्रेमिका हूँ,
मैं ख़ुद प्यार हूँ
बस शब्दों में रहती हूँ,
मैं ब्रह्म सी निराकार हूँ……
पौधे और झाड़ियां तो बगिया की शान हैं,
पर फूलों में ही रहती, बगिया की जान है।
ये भूली बिसरी बातें और यादें उस सफ़र की थी
था मुनफ़रिद मैं राह पर, न चाह मुस्तक़र की थी
مختصر کہانی جسکےمختلف جہات
کچھ حسین یادیں ،اک حسین واردات
स्त्री जीवन के विविध आयामों को बहुत खूबसूरती से गहरे शब्दों के साथ व्यक्त किया
‘ब्रह्म सी निराकार’
जैसे कि पानी का जीवन…जहाँ गया,जिसमें गया..उसी सा हो गया
बहुत सुंदर कौर जी