जो राह-ए-मुहब्बत न नज़र आई ज़रा और
छाई दिल-ए-माायूस पे तन्हाई ज़रा और
होता न ये ज़ुल्मत मेरी तक़दीर पे क़ाबिज़
गर रौशनी तू होती शनासाई ज़रा और
मुश्किल में था सूरज मेरा, बिन शाम ढला आज
वर्ना अभी चलती मेरी परछाई ज़रा और
बदनाम मेरी ज़ीस्त यहाँ कम थी ज़रा क्या
जो मौत ने शोहरत मुझे दिलवाई ज़रा और
तरदीद जो की हमने ज़रा ज़ुल्म-ओ-सितम की
शमशीर-ए-सितमगर मेरी ओर आई ज़रा और
पहले से ही सहमी है रग-ए-जान ये मेरी
है मौत अगर रूह ये घबराई ज़रा और
मसले पे जिरह बिन ही मुझे क़ैद मिली थी
बच जाते अगर चलती जो सुनवाई ज़रा और
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