मृत जीव – जंतु – वृक्ष – पत्ते, झर – झर,
गिर रहे प्राणहीन होकर भू पर, शर – शर।
अनल के एक कण से फैला,
विश्वारण्य में एक दावानल।
चर – अचर, निशाचर सब,
जर रहे धूं – धूं कर,
धूम्र की चादरों से ढक गया है – नीलाम्बर,
अस्त हुआ रवि तब, थी भरी दोपहर।
त्राहि – त्राहि, त्राहिमाम्,
गूँजा ये स्वर, चहुंओर,
कर-जोड़, कर रहे हैं सब, प्रकृति वंदन,
हे देव अनल! हो शांत,
हो शांत – ये दावानल।
खोले नेत्र प्रकृति ने,
देखा, जल रहा धूं – धूं कर मैला आँचल,
झम – झम, झर – झर तब बरसाए,
श्वेतांबर से, पावन गंगाजल,
शांत हुआ, तब कानन का वो दावानल,
ऋतु बदली – धुल गया प्रकृति का, वो मैला आँचल।
अब तक थे जो छिपे रहे,
अनल तप से,
भू-गर्भ में जो वीर्य स्वर्ण,
अनल – पवन – पय – भू – अम्बर के फल से,
प्रस्फुटित होंगे, वो वीर्य विपुल।।
©संजीव
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