पौधे और झाड़ियां तो बगिया की शान हैं,
पर फूलों में ही रहती, बगिया की जान है।
माली की बगिया में शान तो खूब थी,
पर था कोई फूल नहीं, बगिया बेज़ान थी।
एक फूल की तलाश में, वह माली शूलों पर चलता रहा,
भटकता रहा कई दिनों वह दुर्गम जंगलों में, पत्थरों पर सोता रहा।
थक हार कर, जब सर झुका, वह घुटनों पड़ा,
तब दिखा एक छोटा सा पौधा, जो फूलों से था हरा भरा।
हुआ शरीर लहू-लुहान, ज्योंही उसने उसको गोद उठाया,
रंग बिरंगे फूलों वाला, पौधा था वो, कांटों से भरा पड़ा।
कांटों को उसने काट दिया, रोते पौधे को उसने समझाया,
लौटा बिन कांटों का पौधा लेकर, उसे शूलरहित खिलना सिखाया।
कुछ दिन वह रूठा रहा, याद जंगल की सताती रही,
दिन बीते, बगिया के पौधों के बीच, कांटों की याद आती रही।
बड़े लाड़ प्यार से पाला उसे माली ने,
उसपर पड़ी हर धूल वह हर रोज धोता था,
भूल गया कांटों का साथ, स्नेह जो माली का पाता था।
जब कलियाँ उसमें आने लगी,
कुछ कीड़ों की उस पर नज़र गड़ी।
जब माली कहीं दूर गया,
कीड़ों ने उसे घेर लिया,
कलियां सारी सहम गयी,
पत्तों मे जाकर छुप गयी।
‘ ये पत्ते तुम्हें बचाएंगे?
हम इनको भी चट कर जाएंगे
तुम हमारी बात सुनो,
प्यार से तुम साथ चलो। ‘
छुप गए कीड़े बिल के अंदर
देखा जब माली को आते,
‘ कल फिर लौटकर आएँगे ‘,
कह गए वो जाते जाते ।
देखा जब कलियों को पत्तों में छिपे हुए,
और जब पत्तों पर भी कुछ खरोंच दिखे,
तो समझ गया माली भी
जाहिल कीड़ों ने,
बनाया है अपना शिकार इसे।
बैठा माली वहीं सोचता रहा,
कीटनाशकों का असर होता नहीं इन कीटों पर,
जहरीले कीटों से इस पौधे को बचाऊं कैसे भला।
उठा लाया एक जाल,
जो वर्षों से घर में था पड़ा हुआ,
उस जाल में कई छेद थे।
मन ही मन सोचा उसने,
‘ कुछ ही दिनों की तो बात है,
जब खिल जाएंगी इसकी ये कलियां
महलों में रहने वाले,
खरीददार इसके बड़े मिल जाएंगे।’
घेर दिया पौधे को माली ने
फ़िर वर्षों पुराने जीर्ण जाल से।
दम घुट रहा है पौधे का उस जाल में,
पर वो शांत चुपचाप दम साधे खड़ा है।
बिल में छिपे कीड़ों को वह देख रहा है,
दुस्साहस इनका अब इनके सिर चढ़ा है।
रात के अंधेरे में,
जब माली सो रहा था,
उन जहरीले कीड़ों ने
रौंद डाला उस पौधे को।
उसकी नाजुक पत्तियों को चबा गए,
जो फूल खिल रहे थे
उनकी पंखुड़ियों को नोच कर फेंक दिया।
ज़ख्म के निशान हर अंग पर देकर,
उसे अधमरा तड़पते छोड़ दिया।
उस जंगल के फूल को
उजड़ा हुआ देखकर,
जिसे सींचा था जतन से,
बड़े लाड़ प्यार से पाला था –
माली बहुत रोया।
बोला –
‘ तू किस काम का है रे माली
तूने ऐसे की इसकी रखवाली? ‘
कहा पौधे ने माली से
‘ बाबा मुझमे
अब भी है जान बाकी,
लौटा दो मेरे जंगल के कांटे,
मैं खुद ही करुँगी अपनी रखवाली। ‘
‘ जिन कांटों को मैंने
जड़ से ही काट दिया,
मुमकिन नहीं अब उन कांटों का
तुममे फ़िर से उग आना… ‘
‘ अगर लौटा नहीं तुम सकते
मेरा कांटों भरा वो कवच और कुंडल
बाबा छोड़ आओ ना, मुझको तुम जंगल। ‘
पर माली शांत बैठा रहा,
नज़रें उससे है फ़ेर रहा,
रोज तड़पता देख रहा।
‘ ले चलो कोई तो मुझे जंगल में,
नहीं चाहिए मुझको, कोई भी माली।
हर वक़्त रहता नहीं वो बैठा यहाँ,
करता नहीं हर वक़्त मेरी वो रखवाली।’
‘ फल और फूल तोड़ लेता है,
कतर देता है लतरती टहनियों को,
बगिया के पेड़ पौधों पर
अधिकार जताता है माली,
चलो मान लिया, है अधिकार,
सींचा उसने पानी से,
खाद और मिट्टी भी है डाली।
पर है नहीं अधिकार उसका
जंगल के पेड़-पौधों पर,
जो स्वयं ही प्रस्फुटित हुए।
सींचा जिसे प्रकृति ने और
जिसकी करती वह स्वयं रखवाली।
मैं जंगल का फूल बनना चाहती हूँ,
मैं फिर से जंगल में रहना चाहती हूँ। ‘
0 Comments