तुम्हारा जाना किसी त्रासदी से कम न था ।
कितनी अजीब बात है न प्रेम द्विभाविक प्रधान भाव है ,यह आपको प्रसन्नता के असीम गहराई तक ले जाकर स्मितपूर्ण ( मुस्कुराने ) स्मृतियां देता है तो साथ ही दुख और विछोह का अनंत आसमान भी देता है । जो स्मृति कभी सुखदायी थीं वही कभी जीवन कंटक बन जाती हैं ।
मैं आज भी जब गुज़रती हूँ स्मृतियों के दलान से तो आंखों में खारा समंदर उमड़ आता है । मैं तुम्हारा जाना स्वीकार न कर सकी कभी और दौड़ती रही हूं अब तक एक छोर पकड़ कर जिनमे तुम्हारे साथ स्वप्न सृजन किया था , मुस्कुराई थी ।
और देखना मैं अपनी अंतिम स्वांस लेते हुए भी उसी छोर को पकड़े रहूंगी ताकि हमारे साथ का प्रतिबिंब मेरी आँखों में हो और तुम उस दूसरे आयाम में भी झट से पहचान लो मुझे ।
मेरा एक कल्पित चित्र है , जिसमें धवल किरणों में छिपकर मैं तुम्हारे इंद्रधनुषी रंगों को समेटने की कोशिश करती हूँ और तुम उन रंगों के बीच से मेरा श्वेत भाव चुरा कर स्वयं में विलीन कर देते हो । ये विलय होना समाप्त होना नही बल्कि निर्माण होना है । ये नए आयाम का एक प्रतीक्षित चित्र है मेरे पास कल्पना में ही सही एक जीवन के लिए पर्याप्त है । अगले जीवन /पुनर्जन्म के सम्बंध में कोई स्पष्ट मत नही , अनुभव या ज्ञान नही है पर मैं समझती हूं कि अगर ऐसा कुछ उस सर्वश्रेष्ठ द्रष्टा द्वारा कभी निर्धारित किया गया होगा तो अवश्य ही तुम्हे मैं उस जीवन में यथार्थ मूर्त स्वरूप में पाऊंगी इस जीवन मे इन स्मृतियों के संदर्भ में बस इतना ही कहना है कि तुम कहीं नही गए हो मैंने समेट के तुमको ,खुद को तुममें विलीन कर दिया है ।
जीवन के इस आषाढ़ में आंसुओं के पत्ते गिरा कर मैंने सांसों की निर्झरिणी को बहने के लिए छोड़ दिया है जहां सावन या बसन्त के आसार तो नही पर इस शरीर रूपी सूखे पत्तों के कुचले जाने से आशाओं की कुमुदिनी जरूर महकेगी ।
प्रेम पर्याय की पूर्णता को प्रतीक्षित
तुम्हारी (होने की आशा में)
अकम्पित बसन्त 😊
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